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श्रीराम के धनुष कोदंड की खासियत सुनकर उड़ जाएंगे आपके होश

श्रीराम के धनुष कोदंड की खासियत सुनकर उड़ जाएंगे आपके होश

बहुत कम लोग प्रभु श्रीराम के...Editor

बहुत कम लोग प्रभु श्रीराम के धनुष कोदंड की खासियत के बारे में जानते हैं. जी हाँ, ऐसे में आज हम आपको उसी के बारे में बताने जा रहे हैं जिसे सुनकर आप चौंक जाएंगे. आइए बताते हैं इससे जुडी एक पौराणिक कथा के बारे में.

पौराणिक कथा - कहते हैं एक बार समुद्र पार करने का जब कोई मार्ग नहीं समझ में आया तो भगवान श्रीराम ने समुद्र को अपने तीर से सुखाने की सोची और उन्होंने तरकश से अपना तीर निकाला ही था और प्रत्यंचा पर चढ़ाया ही था कि समुद्र के देवता वरुणदेव प्रकट हो गए और उनसे प्रार्थना करने लगे थे. बहुत अनुनय-विनय के बाद राम ने अपना तीर तरकश में रख लिया.

भगवान श्रीराम को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माना जाता है. हालांकि उन्होंने अपने धनुष और बाण का उपयोग बहुत मुश्किल वक्त में ही किया. उनके धनुष बाण को कोदंड कहा जाता था.

देखि राम रिपु दल चलि आवा. बिहसी कठिन कोदण्ड चढ़ावा..

अर्थात शत्रुओं की सेना को निकट आते देखकर श्रीरामचंद्रजी ने हंसकर कठिन धनुष कोदंड को चढ़ाया.

बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि भगवान राम के धनुष का नाम कोदंड था इसीलिए प्रभु श्रीराम को कोदंड कहा जाता था. कोदंड का अर्थ होता है बांस से निर्मित. कोदंड एक चमत्कारिक धनुष था जिसे हर कोई धारण नहीं कर सकता था. कोदंड नाम से भिलाई में एक राम मंदिर भी है जिसे 'कोदंड रामालयम मंदिर' कहा जाता है. भगवान श्रीराम ने दंडकारण्य में 10 वर्ष से अधिक समय तक भील, वनवासी और आदिवासियों के बीच रहकर उनकी सेवा की थी.

कोदंड की खासियत - कहा जाता है कोदंड एक ऐसा धनुष था जिसका छोड़ा गया बाण लक्ष्य को भेदकर ही वापस आता था. वहीं ऐसे में एक कथा यह भी प्रचलित है कि एक बार की बात है कि देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत ने श्रीराम की शक्ति को चुनौती देने के उद्देश्य से अहंकारवश कौवे का रूप धारण किया और सीताजी को पैर में चोंच मारकर लहू बहाकर भागने लगा. तुलसीदासजी लिखते हैं कि जैसे मंदबुद्धि चींटी समुद्र की थाह पाना चाहती हो उसी प्रकार से उसका अहंकार बढ़ गया था और इस अहंकार के कारण वह-

..सीता चरण चोंच हतिभागा. मूढ़ मंद मति कारन कागा..

..चला रुधिर रघुनायक जाना. सीक धनुष सायक संधाना..

वह मूढ़ मंदबुद्धि जयंत कौवे के रूप में सीताजी के चरणों में चोंच मारकर भाग गया. जब रक्त बह चला तो रघुनाथजी ने जाना और धनुष पर तीर चढ़ाकर संधान किया. अब तो जयंत जान बचाने के लिए भागने लगा.

वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्र के पास गया, पर इन्द्र ने भी उसे श्रीराम का विरोधी जानकर अपने पास नहीं रखा. तब उसके हृदय में निराशा से भय उत्पन्न हो गया और वह भयभीत होकर भागता फिरा, लेकिन किसी ने भी उसको शरण नहीं दी, क्योंकि रामजी के द्रोही को कौन हाथ लगाए?

जब नारदजी ने जयंत को भयभीत और व्याकुल देखा तो उन्होंने कहा कि अब तो तुम्हें प्रभु श्रीराम ही बचा सकते हैं. उन्हीं की शरण में जाओ. तब जयंत ने पुकारकर कहा- 'हे शरणागत के हितकारी, मेरी रक्षा कीजिए प्रभु श्रीराम.'.इति रामचरित मानस कथा

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